
‘छत्तीसगढ़ ऐसा प्रदेश है, जिसका धानी आंचल भारत की शोभा है. यह सम्राटों, सेनानियों, संतों, सुंदरियों की लीला स्थली है- और तात्रिकों का गढ़-जहां कृषक चार-अमावस्याओं-हरेली, पोला, पितृमोक्ष, दीपावली का उत्सव मनाते हैं-हरेली-हल वाली, पोला-वृक्ष वाली, पितृमोक्ष-पितरों वाली तथा दीपावली-दीपों वाली है. जब सावन की अमावस्या-हरेली-हरियाली-हल वाली-आती है- तो छत्तीसगढ़ में धान-बोने का कार्य सम्पन्न हो जाता है-इसलिए हरेली के दिन हल, कोपर, राँपा, कुदाली, चतवार आदि सब उपकरणों को धोकर तेल लगाया जाता है, उस दिन कृषि कार्य की छुट्टी रहती है.
देश-भेद के अनुसार श्रावण कृष्ण अमावस्या को हरित (या हरियाली अमावस्या) कहते हैं। इस दिन किसी निर्जन जलाशय में स्नान, दान और पुण्यात्मा ब्राह्मणों को भोजन कराने से पितर प्रसन्न होते हैं।
छत्तीसगढ़ किसानों का गढ़ है. सावन की अमावस्या यहां के किसानों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण त्यौहार है. धरती का अंचल एकदम हरा-भरा हो जाता है. सरिताएं रजस्वला होकर जवानी में उफनती लहराती है, बाउग (बोनी) और बियासी (निराई) का काम लगभग समाप्त प्राय रहता है. तब ही यह उत्सव मनाया जाता है. इस दिन किसान अपने नांगर (हल) राँपा, कुदाली, टांगा बसुला आदि समस्त उपकरणों को धोते हैं, फिर उन सब हथियारों का हांथा (हाथ की छाप) देते हैं, चंदन, बंदन लगाते हैं होम धूप देकर चिला का भोग लगाते हैं, और गाय-बैल के कोठों में दर्रा (मुरुम) पाटते हैं. पंडित रमाकांत मिश्र शास्त्री के अनुसार परई (हंडी ढांकने की मिट्टी का पात्र) में सिंदूर से पांडु-पुत्र अर्जुन के
: चौखट में कील ठोंककर घर को प्रेत-भूत-पिशाच बाधा से सुरक्षित कर देते हैं, तो कृषक अन्न देकर उसका सम्मान करते हैं. फसल की मिसाई के बाद कृषक यादव, नापित, बरेठ, लोहार, टहलू को अन्न देकर संतुष्ट किया जाता है यह वार्षिक अन्न देना की प्रथा-जेवर हैं. छत्तीसगढ़ में जो कृषक शाक्त है, वे प्रायः हरेली के उत्सव में शिकार (मांस) खाते हैं. लोग छुट्टी मनाते हुए घर में बरा (बड़ा) चौंसेला (चावल के आटे की पूड़ी) खाते हैं. लड़के लोग गेंड़ी बनाते और गेंड़ी दौड़ प्रतियोगिता आयोजित करते है, गेंड़ी तीन फुट से लेकर दस फुट का लंबा बाँस है, जिसको डांड़ कहते हैं. उस डांड़ में पैर रखने के लिए लगभग एक फुट बांस को चीरकाट कर पउवा बनाते हैं, जिसे बांस के डंडे में फंसाकर बरही से बांध देते हैं, और उसमें खूंटी लगा देते हैं, और आवाज पैदा करने के लिए अरंड का तेल डाल देते हैं. गेंड़ी चढ़ने का अभ्यास जरुरी हैं, अन्यथा गेंड़ी पर चलना बड़ा कठिन होता हैं, जवान लोग भी गेड़ी का मजा लेता है. गेंड़ी पर चढ़कर भकड्डू (कबड्डी) खेलते हैं, ठिक्की लड़ाते हैं और गेंड़ी को पानी पिलाते हैं, गेंड़ी में चढ़कर नाचते हैं, वनवासी लोग तो गेंड़ी से हाकी भी खेलते हैं. गेंड़ी की प्रथा संभवतः कीचड़ से पैरों को बचाने के लिए शुरु हुई होगी. गांव के मनचले लोग बरोछ खेलते हैं, नारियल फेंकने की प्रतियोगिता द्यूत क्रीड़ा भी होती है. यदि हरेली के दिन ग्रहण (गरहन) पड़ जाये, तो पुरोहित, पंडित, गुनिया, बैगा, अगरिया लुहार आदि लोग मंत्र-यंत्र ताबीज, गंडा बनाते हैं, मंत्र साधना करते हैं, और अपने अपने देवी की विशेष पूजा कर पूर्वो को भी विशिष्ट बनास देते हैं. दुर्गा पूजा महाविद्या है, तो दूसरी ओर आसुरी विद्या भी है. यातुधान, जातुधान से जादू की विद्या टोना, जादू पांगना, झाडू फूंक करना, मूठ मारना, बान- चलाना शुरु हुई. टोनही विवस्त्रा वितकेशा होकर श्मशान में साधना करती हैं, तो पंगनहा पांगन विद्या सीखता है, नारियां टोना करती है, तो पुरुष पांगन विद्या का प्रयोग करते हैं- ग्रहण इनके लिए महत्वपूर्ण है.
अंत में कृषक जीवन की सफलता के लिए पाराशर ऋषि ने चार गुणों का उल्लेख किया हैं- जो किसान पशु का हितैषी, क्षेत्र पर जाने वाला समय का ज्ञाता, बीजों के रक्षण में तत्पर रहता है- वह धन-धान्य से पूर्ण रहता है.
गाय अच्छी होती है और खेत में जाती है, समय जानती है, और बीज बोने में समर्पित रहती है। पहली फसल मुफ़्त होती है और निराश नहीं होती।
निर्मल माणिक/ प्रधान संपादक ,मोबाइल:- 9827167176
Thu Jul 24 , 2025
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