व्यक्ति वह है, जो व्यक्त हो। ‘अभिव्यक्ति’ शब्द का जन्म ‘व्यक्ति’ शब्द के बाद हुआ है, परंतु दोनों साथ-साथ चलते हैं। व्यक्ति कितना सुंदर है, कितना चरित्रवान है, कितना विद्वान है, कितना बलिष्ठ है, कितना धनवान है? इससे समाज को तब तक लाभ नहीं होता, जब तक ये सारी विशेषताएं उसके आचरण या व्यवहार में नहीं आ जातीं। डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा जो थे, जैसे थे, उसी रूप में व्यक्त हुए प्रखर वक्ता, प्राध्यापक, भाषाविद्, साहित्यकार, शिक्षाविद्, इतिहासविद्, संस्कृति प्रेमी, प्रतिष्ठित -सामाजिक। उनके व्यक्तित्व के ये सारे आयाम उनके कृतित्व में भली भांति अभिव्यक्त हैं। – को बड़ छोट कहत अपराधू’ !
डॉ. शर्मा मेरे गुरू प्रख्यात भाषाविद् प्रो० (डॉ०) रमेश चंद्र महरोत्रा के प्रमुख शिष्यों में अग्रणी एवं मेरे अग्रज थे, जिनका स्नेहिल साहचर्य मुझे दर्जनों बार मिला। बेन जॉनसन ने कहा है कि-बोलने से ही मनुष्य के रूप का साक्षात्कार होता है। मैंने उनकी प्रखर वाणी सुनने का सौभाग्य पाया है ओजस्विता तेजस्विता से भरी वाणी, जिसमें कहीं भी अतिरंजना अथवा अतिव्याप्ति नहीं। वे कभी किसी को प्रसन्न करने के फेर में नहीं रहे स्वयं को प्रसन्न रखने के लिए वे वही बोलते थे, जो दूसरों का भी हित करे। छठी कक्षा में पढ़े हुए एक श्लोक का स्मरण मुझे अनायास हो रहा है: –
“संसार में सुखद व्यक्ति हमेशा सुखद वक्ता होते हैं। अप्रिय और सत्य के श्रोता और वक्ता दुर्लभ होते हैं।”
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डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा कॉलेज में प्रोफेसर थे। इनमें गुरु की गुरुता, आचार्य का गुण, शिक्षण की अध्ययनशीलता, उपाध्याय के शिष्य के साथ-साथ पाठक की पहुंच भी शामिल है। पथयति यः सः (पथयति यः सः) के गुण सभी में विद्यमान थे। उनकी वाक्पटुता से ऐसा प्रतीत होता था कि उनके छात्र कभी-कभी डूब जाते थे, डूबने से इनकार कर देते थे। वे पुस्तकों को पाठ्यक्रम में निर्धारित घिसी-पिटी शैली में न पढ़कर विद्यार्थियों में जिज्ञासा पैदा कर पठनीय बनाने के पक्षधर थे।भाषाविद् डॉ० शर्मा छत्तीसगढ़ी, हिंदी, संस्कृत, अंगरेजी, आदि भाषाओं के ज्ञाता थे। कदाचित् इसीलिए उनमें वैचारिक संकीर्णता किंचित् भी नहीं थी, क्योंकि जो जितनी भाषाएं जानता है, उसकी दृष्टि उतनी ही व्यापक और उदार होती है। वे भाषा और बोली के निरर्थक विवाद में कभी नहीं पड़े। वे ‘बोली’ को ‘विभाषा’ (विशिष्ट भाषा) कहते थे, जो ‘भाषा’ (सामान्य) का व्यक्त रूप तो है ही, आधार भी है। स्मरणीय है कि ‘खड़ी बोली’ ही ‘हिंदी भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हुई। छत्तीसगढ़ी विभाषा की जैसी और जितनी सेवा डॉ. शर्मा ने की, वह अप्रतिम है। उनके द्वारा संपादित छत्तीसगढ़ी संस्कृति पदे पदे प्रतिबिंबित होती है। पर्व, त्यौहार, रीति-रिवाज, खान-पान, वेशभूषा, अलंकार आभूषण, कृषि के औजार, धान के दो सौ से अधिक प्रकार, पशु-पक्षी, कीट-पतंग, जलवायु, आदि का सारभूत समावेश इस कोश की भेदक विशेषता है। उनकी पी.एच.डी. का शोध प्रबंध छत्तीसगढ़ के कृषक जीवन की शब्दावली निर्विवाद रूप से अपने डंग का अनूठा कार्य है, जो वर्तमान तथा भावी शोधार्थियों के लिए प्रेरणादायक ही नहीं पाथेय भी है। इसी क्रम में यदि भिन्न-भिन्न व्यवसायों एवं शिल्पों की विशिष्ट शब्दावली का आकलन किया जाए, तो छत्तीसगढ़ का एक संश्लिष्ट स्वरूप उभरेगा।साहित्यकार डॉ. शर्मा ने साहित्य के निहितार्थ ‘सामंजस्य को ही जीवन यात्रा में अपनाया। हिंदी और छत्तीसगढ़ी में समान अधिकार के साथ उन्होंने वैचारिक निबंध, ललित निबंध, कहानी, उपन्यास, समीक्षा आदि विधाओं को चुना, जो गद्य की महत्वपूर्ण गदियां है। कविता लिखना उनकी प्रकृति के अनुकूल तो था, परंतु गद्य लिखने में जो दक्षता उन्होंने अर्जित की, वह श्लाघनीय है। वैचारिक निबंधों में विचारों की कसावट, गहराई, तार्किकता, सटीकता की जरूरत होती है, जिसे डॉ. शर्मा के लेखन में देखा जा सकता है। ललित निबंध में डॉ. शर्मा बेजोड़ है मानों गद्य में कविता हो। बिंब सृष्टि, ध्वन्यात्मकता एवं अलंकारों की सहज छटा उनके ललित निबंधों को आस्वादद्य बनाती हैं। उनके ललित निबंधों के विषय में गुरुवर्य डॉ. रमेशचंद्र महरोत्रा की टिप्पणी उल्लेखनीय है “वैचारिक निबंधों की दिशा मस्तिष्क की ओर होती है, ललित निबंधों की दिशा हृदय की ओर होती है। वैचारिक निबंधों में बौद्धिकता का आतप रहता है, तो ललित निबंधों में कलात्मकता की घटा रहती है। वैचारिक निबंध वस्तुपरकता की प्रधानता से ओत प्रोत होते हैं, लेकिन ललित निबंध आत्मानुभूति की प्रधानता से आप्लावित होते हैं। कथा-साहित्य में कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में भी डॉ. शर्मा सिद्धहस्त रहे और समीक्षा तो मानों उनके स्थायी भाव की तरह प्रत्येक विधा में साथ रही। वस्तुतः ये सारी साहित्यिक विधाएं उनकी रचनाओं में गलबॉही डाले चलती रहीं, जिससे कोई भी रचना शुष्क नीरस नहीं, आर्द्र और सरस लगती है।
डॉ. शर्मा विद्यार्थी जीवन से राष्ट्रीय विचारधारा के थे। अतः उनकी क्षेत्रीयता में आत्ममुग्धता या संकीर्णता नहीं, उदारता एवं तथ्यात्मकता रही। वे छत्तीसगढ़ के भूगोल, इतिहास, संस्कृति को एक माटीपुत्र की दृष्टि से देखते थे। “भूमि माता पुत्रोऽहं पृथिव्याः” वाली वैदिक उक्ति उनके संदर्भ में सटीक लगती है। उनका चिंतन, सृजन, लेखन मौलिक है मूल से जुड़ा हुआ, जिसमें परंपरा का जयगान है, रूढ़ि का नहीं, क्योंकि परंपरा में गति होती है और गति में परिवर्तन/विकास, जबकि रूढ़ि में स्थिरता या जडता होती है। इतिहास और संस्कृति परंपरा के प्रति डॉ. शर्मा का जुड़ाव सघन रहा है. जिसके मूल में लोक की प्रतिष्ठा होती है। छत्तीसगढ़ी लोकभाषा में लोकोक्तियां (कहावतें, मुहावरे, पहेलिया) परंपरा के प्रवाह में ही पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रही है। इन लोकोक्तियों में डॉ. शर्मा ने छत्तीसगढ़ के जन-जीवन की धड़कने महसूस की है।
कृतज्ञता वह भाव है. जिसमें श्रद्धा, सौमनस्य, शिष्टाचार, संस्कार अनायास ही समाविष्ट हो जाते हैं। गुरु के प्रति उनकी श्रद्धा, वस्तुतः ज्ञान के प्रति श्रद्धा थी, इसीलिए वे आजीवन ज्ञान साधना में निरत रहे – “श्रद्धावॉल्लभते ज्ञानम्। उन्होंने स्वयं अपना व्यक्तित्व गढ़ा और जो भी उन्होंने दूसरों से पाया, उनके प्रति सदैव कृतज्ञ रहे। उनके सामीप्य में विद्यार्थियों ने यह गुष्ण उनसे ही आत्मसात किया।
डॉ. शर्मा की चारित्रिक शुचिता एवं दृढ़ता, अनुशासनप्रियता, व स्पष्टवादिता के मूल में नैतिकता रही है. जिससे वे सदैव निर्भीकतापूर्वक अपनी बात रखते थे। किसी के प्रति आग्रह दुराग्रह के फेर में ये कभी नहीं पड़े। वे कबीर की भांति अपनी राह पर चलने वाले पथिक थे। अपने दिक काल से संवाद करने वाले डॉ. शर्मा ऐसे योद्धा थे, जिन्हें जय-अजय, मान-अपमान, लाभ अलाभ का द्वंद्व कभी सता नहीं पाया। राज्यस्तरीय साहित्यकार सम्मान के निर्णायक मंडल में मैं भी था। उन्होंने उन्हीं नामों के प्रति अपनी सहमति जताई जो उस योग्य थे।
संवेदना मनुष्य ही नहीं, प्राणिमात्र की धात्री है। संवेदनशील डॉ शर्मा वर्तमान समय में शिक्षा स्तर में गिरावट से खिन्न हो उठते थे, क्योंकि वे मानते थे कि शिक्षा व्यवसाय नहीं, अध्यवसाय है, जो राष्ट्र की रीढ़ है। वे यह भी मानते थे कि तमाम अत्याधुनिक सुविधाओं के बावजूद शिक्षक ही शिक्षा व्यवस्था की धुरी है। वे शिक्षकों को शिक्षाकर्मी या वेतनभोगी कहने का विरोध करते थे।
डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा की विरासत ज्ञान-धन है, जो मूत-वर्तमान-भविष्य, सुख-दुख, यहां-वहां, अनुकूल-प्रतिकूल सभी स्थितियों में घन (जुड़ना) ही रहता है, कभी घटता नहीं। तभी तो ‘गीता में श्री कृष्ण कहते
“ज्ञान के समान पवित्र कुछ भी नहीं है।
डॉ. शर्मा की पुण्य स्मृति को शत-शत नमन ।
डॉ.चित रंजन कर
पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष साहित्य एवं भाषा अध्ययनशाला पं. राविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर (छत्तीसगढ़) मोबा. 91374 48971

