*”छेरछेरा” छत्तीसगढ़ का अन्नदानोत्सव’::डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा *

छत्तीसगढ़ कृषकों का स्वर्ग है, किन्तु उसे अनुकूल वर्षा, बीज, उर्वरक मिले तब, अन्यथा उसे नरक बन जाने में देर नहीं लगती। कृषि वैज्ञानिक डा. रिछारिया के अनुसार छत्तीसगढ़ में लगभग बारह हजार प्रकार के धान की खेती हो चुकी है, धान की विविधता, विशेषता, गुणवत्ता, सुगंध और सुघरता की दृष्टि से छत्तीसगढ़ के धान चावल की बराबरी कोई नहीं कर सकता। उदाहरण के लिए लवकुश डोकरा डोकरी या राम-लखन एक ऐसे धान का नाम है जिसमें चावल के दो बीज होते हैं। पूस बंगला गहरे तालाब में बोए जाने वाला तथा कड़ाह में लुवाई किए जाने वाला धान है। एक मुट्ठी सुगंधित विशेषकर चावल से पेटू भी तृप्त हो सकता है। दूधराज (दूबराज) तथा अन्य सत्ताईस प्रकार के चावल का भोज पद्मावत के कवि मलिक मोहम्मद जायसी ने छह सौ वर्ष पूर्व लिखा है। विवाह के समधी भोज में पनवार में विविध चावल के व्यंजन की बहार मिलती है। नए सुगंधित चावल का चीला (दोसा) मलमल से पतला, जालीदार, खुशबू से तर रहता है। प्रातः जलपान में चीला और चाय पूर्वी छत्तीसगढ़ की परम्परा है। वर्षा के चार मास चउमास बीत जाने पर शरद ऋतु में अन्नपूर्णा का आगमन घर के आंगन कोठे ढाबा में हो जाता है। गरुहन धान की मिसाई भी पौष तक हो जाती है, तब पौष पूर्णिमा को भगवती शाकंभरी जयंती छत्तीसगढ़ का छेरछेरा है, जिस दिन किसान अन्नदाता बनकर बाल वृद्ध याचक बाबा बैरागी सबको अन्नदान देता है। “छेर…. छेरा….. माई कोठी के धान हेरते हेरा” शाकंभरी जयंती के उत्सव में पूरे छत्तीसगढ़ के गाउँव-गाउँव में गली-गली मंळे, डगर-डगर में, पारा-बस्ती में बच्चे बूढे सब याचना पात्र लिए टोकरी, चुरकी, सुपेली, झोली, थैली हाथ में लेकर अन्नदान की गुहार लगाते हैं, पुकारते हैं अन्नदान संसार का सबसे बड़ा दान है। मधुकरी पका हुआ अन्नदान सर्वथा पुन्य कार्य है। भूखे को भाषण की जगह भात की जरूरत है- यह भाषणखोरों को भलिभांति जान लेना चाहिए। पंडित रमाकांत मिश्र शास्त्री के कथनानुसार एक बार भीषण दुकाल पड़ा। बारह वर्षों तक अवर्षा के कारण संसार में हाहाकार मच गया। इस बइहा दुकाल (भीषण दुष्काल) में धरती की छाती फट गई, हरित श्यामल तरू पेड़ कंकाल हो गये तब निरीह जनता छाती पीट पीट कर हाय-हाय करते अन्नपूर्णा की प्रार्थना की। मां करूणामयी वात्सल्य मयी दयामयी होती है जनता की पीड़ा से द्रवित होकर मां शताक्षी ने अपने सौ-सौ नयनों से आंसू की वर्षा की। करूणामयी माता के नयन से आंसुओं के फूल बरसने लगे और मां ने दोनों हाथों की मुठ्ठी से अंजली भर पसर- पसर शाक-साग बरसाना आरंभ किया लो साग से भूख मिटा लो, फिर अन्न होगा और जगदम्बा ने आशीष दिया श्रेयः श्रेयः श्रेयः च्छेयः कल्याण हो, कल्याण हो, वही छेर छेरा तद्भव बन गया। शाक से जनता का भरण पोषण करने के कारण देवी शताक्षी का नाम शाकंभरी पड़ गया। राजस्थान में नवलगढ़ के समीप पहाड़ी के उपर देवी शाकंभरी दुर्गा का मंदिर मण्डप है, जो शक्तिपीठ के रूप में प्रसिद्ध है। मार्कण्डेय मुनी के चंडी-स्तवन में शाकंभरी नाम की ख्याति लिखी है –

ततोडहमखिलं लोमात्मदेह समुदभवै।

भरिष्यामि सुराः शाकेरावृष्टेः प्राणधरिकेः ।शाकम्भरीति विख्याति तदा यास्याम्यहं भूवि।

निर्मल माणिक/ प्रधान संपादक ,मोबाइल:- 9827167176

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