राजनैतिक स्वतंत्रता के साथ सामाजिक स्वतंत्रता के पक्षधर थे डॉ बाबा भीमराव अंबेडकर

राजनैतिक स्वतंत्रता के साथ सामाजिक स्वतंत्रता के पक्षधर थे डॉ बाबा भीमराव अंबेडकर

दलित सामाजिक संघर्षों के प्रणेता ,भारतीय संविधान के निर्माता और लोकतंत्र के प्रबल समर्थक डॉ. बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर ने स्वतंत्रता की वकालत तो की, लेकिन उनका मतलब केवल राजनीतिक स्वतंत्रता नहीं था, बल्कि सामाजिक स्वतंत्रता एक प्रमुख लक्ष्य था । स्वतंत्रता के प्रति उनका दृष्टिकोण व्यापक था।

उनका मानना था कि “राष्ट्रीय स्वतंत्रता और व्यक्तिगत सामाजिक स्वतंत्रता के बीच बहुत बड़ाअंतर है।इसे समझे बिना हम सही और पूरी स्वतंत्रता प्राप्त नहीं कर सकते । भारत को अगर एक विदेशी देश की गुलामी से मुक्त किया जाए तो उसे राजनीतिक स्वतंत्रता मिलती है, लेकिन फिर भी स्वतंत्र भारत के लोग स्वतंत्र नहीं होते हैं।क्योंकि विदेशी शासकों के जाने पर राजनीतिक दासता समाप्त तो हो जाती है,परंतु उनके जाने के बाद भी उस देश के लोगों की दासता जारी रहती है, उन्हें सामाजिक स्वतंत्रता नहीं मिलती है।तोइसे हम पूरी आज़ादी या स्वतंत्रता कैसे कह सकते हैं।”- डॉ. बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर

समान अवसरों और अधिकारों से अनेकों वर्षों से वंचित रहे बहिष्कृत अछूत समाज को जब तक गुलामी के जंजिरों से मुक्त नहीं किया जाता, उनकी दासता को मिटाने में जब तक स्थापित शासन को सफलता नहीं मिलती तब तक राजनीतिक स्वतंत्रता केवल मुट्ठी भर लोगों के हितों की रक्षा करेगी, और ऐसी स्वतंत्रता का कोई मतलब नहीं है।

बाबासाहेब ने महसूस किया कि सदियों से समान अवसरों और अधिकारों से वंचित रखे गए बड़े वर्ग के लिए केवल राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने से लाभ नहीं होगा, वे राष्ट्रीय स्थापित मानकों विचारधाराओं के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाएंगे।

डॉ. बाबासाहब आंबेडकर का सामाजिक दर्शन तीन शब्दों – स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व पर आधारित है। बाबासाहेब समानता के सबसे बड़े समर्थक माने जाते हैं। उन्होंने जीवन भर समानता के लिए कड़ा संघर्ष किया।

सन् 1943 में इंडियन फेडरेशन के कार्यकर्ताओं के एक शिविर में भाषण देते हुए अंबेडकर ने कहा –

“हर देश में संसदीय लोकतंत्र के प्रति बहुत असंतोष है। भारत में इस प्रश्न पर विचार करना अत्यंत आवश्यक है। भारत संसदीय लोकतंत्र प्राप्त करने के लिए बातचीत कर रहा है। लेकिन हमें बहुत सावधान रहने की ज़रूरत है । यह उतना बढ़िया उत्पाद नहीं है जितना दिखाई देता है ।”इसी भाषण में आगे कहा कि –

“संसदीय लोकतंत्र कभी जनता की सरकार नहीं रही,न जनता के द्वारा चलाई जाने वाली सरकार रही। कभी ऐसी भी सरकार नहीं रही जो जनता के लिए हो।”

भीमराब अंबेडकर ने 1942 के रेडियो भाषण में स्वाधीनता, समानता और भाईचारा, इन तीन सूत्रों का उद्भव फ्रांसीसी क्रांति में देखा। उन्होंने कहा “मजदूर के लिए स्वाधीनता का अर्थ है जनता के द्वारा शासन। संसदीय लोकतंत्र का अर्थ जनता के द्वारा शासन नहीं है।”

अंबेडकर ने संसदीय लोकतंत्र की व्याख्या करते हुए लिखा-“संसदीय लोकतंत्र शासन का ऐसा रूप है जिसमें जनता का काम अपने मालिकों के लिए वोट देना और उन्हें हुकूमत करने के लिए छोड़ देना होता है।” अंबेडकर ने लोकतंत्र को मजदूरवर्ग के नजरिए से देखा और उस पर अमल करने पर भी जोर दिया।

नेतागण जिस लोकतंत्र की बात कर रहे हैं वो मालिकों का जनतंत्र है। वे जिस तथाकथित लोकशाही की बार बार दुहाई दे रहे हैं वो मालिकों की लोकशाही है। इसके विपरीत भीमराव अंबेडकर का मानना था जब तक पूँजीवाद कायम है तब तक सही मायनों में न स्वतंत्रता संभव है और न समानता। वास्तव अर्थ में समानता हासिल करने के लिए पूंजीवादी व्यवस्था को बदलना होगा उसके बाद ही वास्तविक अर्थ में समानता प्राप्त की जा सकती है।

इसके विपरीत नेतागण पूंजीवाद को बनाए रखकर ही नियमों में सुधार की बात कर रहे हैं।

अंबेडकर की नजर में वास्तविक स्वतंत्रता का अर्थ है सभी किस्म के विशेषाधिकारों का खात्मा। नागरिक सेवाओं से लेकर फौज तक,व्यापार से लेकर उद्योग धंधों तक सभी किस्म के विशेषाधिकारों को खत्म किया जाए। वे सारी चीजें खत्म की जाएं जिनसे असमानता पैदा होती है।

अंबेडकर की धारणा थी कि –

”लोकप्रिय हुकूमत के तामझाम के बावजूद संसदीय लोकतंत्र वास्तव में आनुवंशिक शासकवर्ग द्वारा आनुवंशिक प्रजा वर्ग पर हुकूमत है। यह स्थिति वर्णव्यवस्था से बहुत कुछ मिलती जुलती है। ऊपर से लगता है कोई भी आदमी चुना जा सकता है, मंत्री हो सकता है, शासन कर सकता है। वास्तव में शासक वर्ग एक तरह वर्ण बन जाता है। उसी में से,थोड़े से उलटफेर के साथ,शासक चुने जाते हैं। जो प्रजा वर्ग है, वह सदा शासित बना रहता है।”(संदर्भ – जगदीश्वर चतुर्वेदी, कोलकाता विश्वविद्यालय के अवकाश प्राप्त प्रोफेसर व जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं।)

डॉ. आंबेडकर सामाजिक समानता केलिए संघर्ष करते रहे ।उन्होंने गणितीय समानता या कृत्रिम समानता को स्वीकार नहीं किया। प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकताओं और क्षमताओं में एक स्वाभाविक भिन्नता होती है।बाबासाहब आंबेडकर का मानना था की वंश, धर्म, जाति तथा सामाजिक स्थान ऐसे आधार पर भेदभाव करना समाजवादी व्यवस्था के साथ धोखा होगा।

 डॉ भीमराव अंबेडकर को हमें आधुनिक मिथभंजक के रूप में देखना चाहिए। भारत और लोकतंत्र के बारे में परंपरावादियों, सनातनियों, डेमोक्रेट, ब्रिटिश बुद्धिजीवियों और शासकों आदि ने अनेक मिथों का प्रचार किया है। ये मिथ आज भी आम जनता में अपनी जड़ें जमाए हुए हैं। बाबासाहेब ने भारतीय समाज का अध्ययन करते हुए उसके बारे में एक नयी सोच पैदा की है। भारतीय समाज के अनेक विवादास्पद पहलुओं का आलोचनात्मक और मौलिक विवेचन किया है। भारत में भक्त होना आसान है समझदार होना मुश्किल है। बाबासाहेब ऐसे विचारक हैं जो शूद्रों के सामाजिक ताने-बाने को पूरी जटिलता के साथ उद्घाटित करते हैं। बाबासाहेब के भी भक्तों में एक बड़ा तबका है जो दलित चेतना और दलित विचारधारा से लैस हैं।उन्हें भक्तों के आभा मंडल से बाहर निकलकर शिक्षित ,चेतना सम्पन्न और डॉ बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के विचारधारा से लैस होकर सामाजिक स्वतंत्रता, समानता,उत्थान, राजनैतिक और संविधानिक अधिकारों की रक्षा के संघर्षों को आगे बढ़ाना ही डॉ बाबा साहब के सपनों को साकार करना होगा।बाबा साहेब का मानना था कि – “वह मनुष्य को मात्र मनुष्य नहीं रहने देती और आज़ाद भी नहीं।मनुष्य पूर्ण मनुष्य तभी बन सकता है जब वह अन्य से या कहें की समस्त प्राणी से बिना किसी स्वार्थ के पवित्र आत्मीय और प्रेम का रिश्ता बनाए।”

    प्रस्तुति:  गणेश कछवाहा

रायगढ़ ,छत्तीसगढ़।

94255 72284

gp.kachhwaha@gmal.com

निर्मल माणिक/ प्रधान संपादक ,मोबाइल:- 9827167176

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