ऐसा त्यौहार जिसका इंतजार साल भर बेटियों को रहता है- पोरा तिहार

किसी भी राज्य की आत्मा उसकी संस्कृति में निवास करती है, और छत्तीसगढ़ इसका सजीव उदाहरण है। “धान का कटोरा” कहे जाने वाले इस राज्य में परंपराओं की आभा खेतों की हरियाली के साथ घुल-मिल जाती है। यहां असंख्य लोकपर्व जीवन में रंग भरते हैं, परंतु इन सबमें पोरा तिहार का स्थान अनुपम है। यह न केवल कृषक जीवन का उत्सव है, बल्कि मिट्टी, बैल और श्रम के मध्य अटूट बंधन का प्रतीक भी है।

यह पर्व खरीफ फसल के द्वितीय चरण का काम यानि कि निंदाई और गुड़ाई पूरा होने पर मनाते हैं। धान की बालियों में पोर फुटने, अर्थात दूध भर आने की स्थिति, ही इस त्यौहार के नाम का आधार है। खेतों की मेड़ पर हिलते हुए सुनहरे गुच्छे जैसे किसान के सपनों के अंकुर हों, और उनके श्रमसाथी बैल, जो जुताई से लेकर कटाई तक बिना थके उनका साथ निभाते हैं; इस दिन विशेष पूजा के पात्र बनते हैं। जिनके पास खेत नहीं, वे भी मिट्टी के बैलों की प्रतिमाएं सजाकर और पूजकर अपनी आस्था प्रकट करते हैं।

पोरा की एक अद्भुत परंपरा है मिट्टी के नांदिया बैलों, चक्कियों और घरेलू बर्तनों की पूजा। बेटों को बैल और हल से खेती के संस्कार समझाए जाते हैं, वहीं बेटियों को मिट्टी के चूल्हे-बर्तनों से गृहस्थी की संस्कृति का बोध कराया जाता है। यह मात्र खेल नहीं, बल्कि भविष्य के जीवन कौशल की सहज शिक्षा है। हालांकि अब गांवों में भी जांता यानी चक्की का प्रचलन कम हो गया है। इसका स्थान आटा-चक्की ने ले लिया है।

छत्तीसगढ़ के अलावा यह पोरा त्योहार महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक जैसे राज्यों में भी उत्साहपूर्वक मनाया जाता है। कई स्थानों में किसान इन दिनों अपने बैलों को बडे़े गर्व और खूबसूरती से सजाए गए बैलों का प्रदर्शन भी करते हैं।

*पोरा तिहार कब मनाया जाता हैं?*
पोरा पर्व भादों माह की अमावस्या, जिसे पिठोरी अमावस्या कहा जाता हैं, के दिन मनाया जाता है ।

*पोरा तिहार का मतलब क्या हैं?*
पोरा का अर्थ होता है, पोर फुटना या पोटीयाना, जब धान की बालियों में पोर फुटता है अर्थात धान की बालियों में दूध भर आता है। यह समय धान की बालियो के गर्भावस्था का समय होता है। धान की बालियों में पोर फुटने के कारण इस पर्व को, पोरा कहा जाता है । इस पर्व में हमारे बैलों की मुख्य भूमिका होती है, जो खेतों में जुताई से लेकर, खेतो के सम्पूर्ण कार्य मे अपनी मुख्य भूमिका निभाते हैं। किसान, अपने बैलो के प्रति समर्पण का भाव व्यक्त करने के लिए व सम्मान देने के लिए इस पर्व में बैलो को सुबह-सुबह नहला धुला कर ,बैलों का साज श्रृंगार कर पूजा अर्चना करता है। छत्तीसगढ़ के लोग प्रकृति प्रेमी है, और प्रकृति को ही अपना सर्वस्व मानते है , इसीलिए छत्तीसगढ़ के हर तीज त्योहारों में प्रकृति पूजन देखने को मिलता है। इस प्रकार पोरा का पर्व हर इंसान को जानवरों का सम्मान करना सिखाता है।

*पोरा तिहार कैसे मनाया जाता हैं?*
पोरा पर्व की शुरुआत पूर्व रात्रि से होती हैं यानि कि अगर पोरा पर्व गुरुवार को होता है तो बुधवार की रात्रि को ही गर्भ पूजन किया जाता हैं। रात्रि में जब गांव में सभी सो जाते हैं तो गांव का बैगा/ मुखिया और कुछ पुरूष सहयोगियों को साथ लेकर गांव और गांव के बाहर में प्रतिष्ठित सभी देवी देवताओं के पास जाकर खास पूजा अर्चना किया करते हैं। कही- कही यह पूजन रात भर चलता हैं। जहां रात्रि के पूजन का प्रसाद उसी जगह पर ही ग्रहण किया जाता है तथा प्रसाद घर ले जाने की मनाही रहती है। इस पूजा की खास बात यह है कि इस पूजन में वो व्यक्ति शामिल नहीं हो सकता; जिसकी पत्नी गर्भवती हो और साथ ही इस पूजन में जाने वाला कोई भी व्यक्ति जूते चप्पल पहनकर नहीं जा सकता। सुबह होते ही यानि कि पोरा के दिन घर की महिलाएं छत्तीसगढ़ी पकवान बनाती हैं। जैसे कि मीठा चीला, अनरसा, सोहारी, चौसेला, ठेठरी, खुरमी, बरा, भजिया, तसमई आदि। इस दिन किसान अपनी बैलों को नहलाते और उनके सींग व खुर में पॉलिश लगाकर सजाते हैं और गले में घुंगरू, घंटी या फिर कौड़ी से बने आभूषण पहनाकर पूजा करके आरती उतारकर उनके प्रति अपनी सदभावना /कृतज्ञता व्यक्त करते है।

पोरा के दिन कुम्हार के पास से मिट्टी के पके हुए बैल खरीदे जाते है । मिट्टी के बने चक्के, चूल्हा, कढ़ाई और बर्तन भी खरीदे जाते है। इस दिन घर के पुरूष बच्चों के लिए मिट्टी के बने खिलौने; जिसमें लड़के के लिए मिट्टी के बैल और लड़कियों के लिए रसोईघर व गृहस्थी में उपयोग होने वाले बर्तन के खिलौने जैसे चुकिया, चुल्हा, थाली इत्यादि लाकर पहले इन सभी की पूजा की जाती हैं और इसके पश्चात मिट्टी के बने बैल के पैरों में चक्के लगाकर सुसज्जित करके बेटों को खेती के कार्य समझाने का प्रयास किया जाता है। वहीं बेटियों को रसोईघर में उपयोग में आने वाली छोटे-छोटे मिट्टी के बर्तन पूजा करके खेलने के लिए दिया जाता है; जिससे कि बेटियां रसोईघर व गृहस्थी की संस्कृति और परंपरा को समझ सकें। बच्चे नांदिया-बैल व पोरा-चक्की से खेलने में मगन रहते हैं। पूजा करने के बाद नांदिया बैल को छत्तीसगढ़ के प्रमुख व्यंजन ठेठरी-खुरमी का भोग लगाया गया। पूजा के पश्चात भोजन के समय अपने रिश्तेदारों व करीबियों को सम्मान के साथ आमंत्रित करके एक दूसरे के घर जाकर भोजन करते हैं।

*पोरा तिहार से शुरू होगा तीज के लिए लिवाने आने का सिलसिला:-*
बेटियों को तीज का त्योहार मनाने के लिए ससुराल से मायके लाने का सिलसिला पोरा के दिन से शुरू हो जाता है। इस कारण पोरा के दिन बसों व लोकल ट्रेनों में दूसरे दिनों की अपेक्षा ज्यादा भीड़ देखी जा सकती है। पिता या भाई जब ससुराल पहुंचते हैं तो तीजहारिनों की खुशी का ठिकाना नहीं रहता। दरअसल वे मायके आकर पोरा के तीन दिन बाद पति के दीर्घायु के लिए तीज का व्रत रखती हैं। इस पर्व के पहले दिन रात कड़ू (कड़वे) भात यानी करेला की सब्जी खाने की परंपरा बरसों से चली जा आ रही है। पोरा के चौथे दिन गणेश चतुर्थी का आयोजन किया जाता है तथा इसी दर्मियान मेहनतकश समुदाय द्वारा निर्माण के देवता विश्वकर्मा जी की भी पूजा किया जाता है। इस प्रकार पूरा हफ्ता उत्सव मय रंगो से सराबोर होता है। पोरा तिहार केवल एक पर्व नहीं, बल्कि छत्तीसगढ़ की मिट्टी से जुड़ने, प्रकृति के प्रति आभार व्यक्त करने और आने वाली पीढ़ियों को सांस्कृतिक शिक्षा देने का माध्यम है। यह पर्व बेटियों के लिए मायके की खुशबू, बच्चों के लिए खेल और किसानों के लिए श्रद्धा का प्रतीक है। यही कारण है कि इसका इंतजार पूरे सालभर किया जाता है।

*डॉ. जीतेन्द्र सिंगरौल*,
तथागत बुद्ध चौक, मोछ (तखतपुर),
जिला बिलासपुर (छत्तीसगढ़)

निर्मल माणिक/ प्रधान संपादक मोबाइल:- / अशरफी लाल सोनी 9827167176

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