कबीर का सच; समाज बहुत कुछ कबीर के बताए मार्ग पर चल रहा है: प्रोफेसर डॉ फूलदास महंत

( कबीर साहेब की 628वीं जयंती पर विशेष)

कबीर पंथ को मानने वाले समाज में कबीर की जन्म को उनके प्राकट्य दिवस के रूप में बड़े जोर -शोर ,उत्साह के साथ मनाया जाता है।उनके जन्म को भी समाज एक सीख के रूप में ग्रहण करता है..
कबीर पंथी समाज का मानना है कि कबीर साहब ने अपने जन्म के संबंध में स्वयं यह कहा है
“कबीर जब हम पैदा हुवे।
जग हंसे हम रोए।।
ऐसी करनी कर चले।
हम हंसे जग रोवे।।”
इस पंक्ति का अर्थ गियानी,ध्यानी,संत ,महंत,गीतकार,संगीत कार ,अपने अपने ढंग से व्याख्या कर यह कहते है ,कि इस धरा -धाम संसार में आने का उद्देश्य ऐसा कुछ हो जाना चाहिए कि जब हमको यहां से परमात्मा के धाम में जाना पड़े तो लोग दुखी होकर यह कहें कि कुछ दिन तो और साथ रहते,समाज को उनकी जरूरत थी..आदि आदि।
कबीर गहन ज्ञानी थे,अनुभव उनका समाज सापेक्ष था।समाज अलग अलग जाति ,धर्म,मान्यताओं ,विश्वास के साथ आगे बढ़ रहा था,तब का समय आज से 628वर्ष पहले पंद्रहवीं शताब्दी भक्ति काल का युग था,राजा लोग अपना अपना साम्राज्य विकास के लिए युद्ध कराकर एक दूसरे से लड़ना , मरना को ही मूल समझ रहे थे,यह मध्यकाल के पहले पहले आदिकाल के समय में जिसे वीर गाथा काल का नाम दिया जाता है,ऐसी स्थिति थी समाज की। हिंदी साहित्य के इतिहास में संवत् 1050 संवत् 1375तक के समय को आदिकाल या वीरगाथा काल नाम दिया गया।इसके बाद संवत् 1375से संवत् 1700तक के समय को हिंदी साहित्य के इतिहास में मध्यकाल -भक्तिकाल कहा गया।यही वह समय है जहां पर भारत देश में भक्ति का अभ्युदय हुआ,समाज ने निर्गुण और सगुण रूप में भगवान् या परमात्मा को ईश्वर रूप में मानना स्वीकार कर उनकी भक्ति ,भजन,आराधना,साधना,तपस्या आदि कई पूजा पद्धति को कई रूप दिया।ब्रह्म जिन्हें समाज ने ईश्वर कहकर व्याख्या की उसके विविध रूप की पूजा करना शुरू कर दिया,इससे लाभ यह हुआ कि राजाओं के निर्देश पर मानव अपने ही समान मानव को काट मार रहे थे ,उसके स्थान पर “मानवता,प्रेम,भक्ति,प्राणी मात्र की सेवा,परमार्थ,एकता, विश्वास का बीजारोपण शुरू हुआ। चारों ओर शांति, सदभाव की स्थापना में लोगों को ईश्वर पर विश्वास होने लगा और इसी समय मंदिर,मस्जिद,गुरुद्वारा और गिरजाघर बनने लग गए।गीता,भागवत,कुरान,बाइबिल सभी में ईश्वर को ढूंढा जाने लगा , विखंडित समाज “इकाई रूप में “एकीकरण होने लगा।”राम”,कृष्ण,विष्णु,शिव और शक्ति के साथ ही पैगंबर,इलाही, इल्लाह,अकबर, अल्लाह, मुहम्मद, प्रभु ईशा मसीह, के साथ ही परमात्मा के निर्गुण निराकार रूप की भी भक्ति सतत् होने लगी जिसमें संत कबीर, रैदास, पीपा, गुरु नानक,बाबा घासीदास जी ने आत्मा में ही परमात्मा को जानने का माध्यम निराकार रूप का तेजी से प्रकाशन हुवा।
उस समय समाज की स्थिति जाति ,धर्म, मान्यताओं के साथ अच्छे,बुरे,ऊंच,नीच, छुआ छूत,कुरीति, अंधविश्वास भी समाज में तेजी से फैल गया था। आज हम आधुनिक युग में जी रहे हैं,धर्म का रूप भी अस्त व्यस्त हो गया है,समाज में समुदाय के लोगों ने अपना अपना धर्म जाति संप्रदाय बना डाला है , आज समाज ने विविध विकास को जन्म दिया है। जाति तो मनुष्य की आदिम पहचान है,पुरखों का दिया हुआ पहचान है,हमारी अपनी अपनी मान्यताएं हैं,परंपराएं हैं,संस्कृतियां है,सबकी अपनी अपनी आस्था है,मर्यादा है,सिद्धांत हैं,रीति,नीति हैं,इसके बावजूद आज भारत की एकता , विश्वास,भाईचारा, अपना पन में अनेक प्रकार से परिवर्तन आया है,समाज ने शिक्षा ग्रहण कर ,खासकर युवाओं ने धर्म का रूप को भी सांप्रदायिक सद्भाव का रूप दिया है।आज हमारे संबंध अंतर्जातीय रूप से जुड़कर भी शादी,विवाह,धार्मिक कार्यों,मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे को “मानने”उन पर बिस्वास करने की दिशा में अग्रसर हुई है,कुछ कट्टर पंथी मान्यताएं भी विकराल रूप में हमें आज भी एक नहीं होने दे रही है,इसके पीछे कट्टरपंथी विचार धारा है… इसी को जड़ से मिटाने की दिशा में “कबीर की बानी,वचन,उनके दोहे, साखी,निर्गुण भजन,पद , बीजक में कही गई जीवन का मर्म की व्याख्या की गई है। ज्येष्ठ पूर्णिमा शुक्ल पक्ष इस वर्ष “कबीर जयंती को प्राकट्य दिवस के रूप में”11जून 2025को मनाई जा रही है।कबीर पंथ को स्वीकार करने वाले विविध जाति के लोगों का एक विशाल संप्रदाय “कबीर संप्रदाय”,कबीर धर्म का रूप ले लिया है। इस धर्म में नाद वंशी, बिंद वंशी , के साथ ऐसी मान्यताएं हैं ,वचन वंशी ..3प्रकार के कबीर पंथी समाज दिखाई पड़ते हैं। नाद वंशी कबीरपंथी ब्रम्हचर्य का पालन करते हुवे बिना शादी किए कबीर आश्रम में संत,साध्वी, नेमी,धर्मी,महंत दीवान,शास्त्री ,आचार्य होकर कबीर बानी को ही जीवन जीने का अहिंसावादी सत्य का मार्ग मानकर कबीर साहब की पूजा अर्चना करते हैं,इन मान्यताओं में इस वर्ग के लोग पूजा अर्चना के रूम में सात्विक यज्ञ के रूप में कबीर साहब की प्रतिमा को रख “चौका आरती “का विशिष्ट विधान करते हैं,चौका आरती 2प्रकार का होता है सुख में किया गया चौका को “आनंदी चौका”कहते हैं,समाज में ऐसी मान्यता है कि वर्ष में एक बार भी जिस घर में चौका हो जाता है उनके यहां अनिष्ट का प्रवेश नहीं हो सकता,वहां साक्षात् कबीर के बताए वाणी में अहिंसावादी और प्रेम की धारा एक विशिष्ट संस्कार के रूप में परिव्याप्त होती रहती है,गुरु ही उनके मार्गदर्शक रूप में होते हैं। कुछ इसी संप्रदाय में “पारख प्रकाश “सिद्धांत के लाखों अनुवाई हैं जो कि चौका को कबीर सिद्धांत से पृथक मानते है,जिस चीजों का कबीर ने ढोंग कुरीति के रूप में विरोध किया था उसी को कबीर पंथी बहुतायत लोग स्वीकार भी करते हैं,इसलिए यह एक “परंपरा”का रूप लिया है। पारखी संत लोग कबीर की वाणी पर विश्वास करते हैं।इस सिद्धांत को संत अभिलाष साहेब जी ने बीसवीं शताब्दी में इलाहाबाद से शुरू किया था,आज भारत देश के अनेक राज्यों में तथा विदेश में भी इस मार्ग को अपनाने वाले कबीर पंथी लोग भी कबीर जयंती में वरिष्ठ भजन प्रवचन के माध्यम से भक्तों के जीवन में कबीर ज्ञान का प्रकाश की जोत जला रहे होते हैं। बिंद वंश के लोग गुरु,माता सहित सभी भक्त गण गृहस्थ जीवन में रहते हुवे भी कबीर पंथ के अनुयाई होते हैं,चौका,भजन,प्रवचन के माध्यम से ये लोग “कबीर जयंती पर”अनेक कार्यक्रम करते हैं,ये लोग कबीर के प्रमुख शिष्यों में धर्मदास जी के 42वंशों के उतरोतर पूजा को गुरु रूप में स्वीकार करते आ रहे हैं,इनका मूल गद्दी आज भारत देश के प्रमुख राज्य छत्तीसगढ़ के दामाखेड़ा कबीर धर्मनगर है।आज इस पंथ का 16वा गुरु पंथ श्री के नाम से विभूषित उदित मुनि नाम साहब संचालित हो रही है,देश विदेश से करोड़ों की संख्या में इन्हें मानने वाले भक्त गण हैं,इस स्थान से चौका पूजा करने वाले महंत को “कड़िहार”नाम दिया गया है क्योंकि कई जाति समाज में लोग अपना सरनेम”महंत”लिखने लगे हैं, हालांकि महंत अहिंसावादी सिद्धांत का प्रवर्तन करता है।एक और कबीर पंथी समुदाय है जिन्हें वचन वंशी कहा जाता है ,ऐसी मान्यता है कि जब गुरु और शिष्य के बीच कबीर के बताए वाणी को जीवन में उतारने की बात होती है तब उसे तीसरा व्यक्ति को सुनने का अधिकार नहीं होता जब तक कि वह उस अनुशासन व्यवस्था में गुरु वाणी को मानने जानने के लिए तैयार न हो जाय,अंतर्मन से। इसे ही कहते हैं “वचन वंशी”,ऐसी मान्यता है कि कबीर के मानने वाले संतों ने कबीर के वचन को माना,उनकी वाणी के आधार पर जीवन जिया इनमें गुरु नानक, पीपा,रैदास,घासीदास तथा राधाकृष्ण संप्रदाय भी हुवे,इसी श्रेणी में “ओसो”ने भी कबीर वचन को कुछ हद तक अपना सिद्धांत बनाया है।
कबीर लोक जीवन को शांति मय,प्रेम मय,तथा आत्मावलोकन कर ईश्वर को शरीर के भीतर ढूंढने का संदेश देते हैं,जप तप पोथी पथरा में कबीर कहते हैं,ईश्वर नहीं मिलेंगे। ओ मानव मात्र को सत्य का पालन करते हुवे,भ्रष्टाचार अत्याचार से दूर रहकर ही प्राप्त करने,दिखावा से दूर रहने में ही ईश्वर रूप का ,उसके सुखमय,शांति मय,शक्तिशाली रूप का दर्शन हम सभी कर सकते हैं।आत्मोत्कर्ष के माध्यम से।यथा कबीर की कुछ पंक्ति
“मौकों कहां ढूंढे वंदे मैं तो तेरे पास में
खोजी होय तो तुरत मिलिहों पल भर के प्रयास में।।
पोथी पढ़ी पढ़ी जग मुआ,पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का ,पढ़े सो पंडित होय।।

बुरा जो देखन मैं चला,बुरा न मालिया कोय।
जो दिल खोजा आपना,मुझ सा बुरा नहीं कोय।।
सच मायने में “अक्षर ब्रम्ह के साधक थे कबीर।। मध्यकाल के इन संत लोगों की वाणी वचन का प्रभाव ही है कि आज समाज का एक बड़ा शिक्षित वर्ग जाति धर्म से हटकर “मानवतावादी “विचार को महत्व दे रहा है,खासकर युवा वर्ग कबीर के विचार को समाज में खड़ा कर रहा है,और जाति वर्ग,संप्रदाय से हटकर समतावादी सिद्धांत को जीने की प्रेरणा दे रहा है,यह सब संतो की वाणी का ही प्रभाव है।अंत में कबीर के “साखी”को ज्ञान का आंखी कहा गया और कबीर के सच को खुद के आत्मज्ञान से पहचानने का यह कबीर की वाणी
साखी -आंखी ज्ञान की
समझ देख मन माही
बिन साखी संसार की
झगड़ा छूटत नहीं।।
साहेब बंदगी साहेब।                                                 प्रस्तुति: डा.फूल दास महंत

निर्मल माणिक/ प्रधान संपादक ,मोबाइल:- 9827167176

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