डा.पालेश्वर प्रसाद शर्मा मेरे साहित्य गुरु थे , मार्गदर्शक थे :सरला शर्मा

रात जागा पाखी उवाच
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1 मई 1928 को जांजगीर के बड़े दुबे बाड़ा में जन्मे नवजातक का नामकरण हुआ पालेश्वर ….दादी ने कहा मुसाफिर मेरे आंगन में उतरा हैं अपने चारों बड़े भाइयों के साथ खेलने । समय पंख लगाकर उड़ता रहा , साहित्य बिरादरी को विशुद्ध गद्यकार , शिक्षा जगत को प्रवीण प्राध्यापक , छत्तीसगढ़ को सांस्कृतिक इतिहास लेखक मिला ।
जाने कितनी यादें मन आंगन में उतरती रहीं । सन् 2004 में मेरी प्रथम कृति वनमाला की भूमिका लिख कर बोले ” भूमिका तो लिख दिया दक्षिणा देनी होगी । दक्षिणा यह कि वनमाला तुम्हारा प्रथम और अंतिम काव्य संकलन है , तुम्हें गद्य ही लिखना है पुरौनी यह कि हिंदी , बांग्ला के साथ साथ छत्तीसगढ़ी में भी लिखना होगा । ”
वे मेरे साहित्य गुरु थे , मार्गदर्शक थे उनके आदेश की अवहेलना करने की कल्पना आज भी नहीं कर सकती । इस तरह शुरु हुई मेरी कलम की यात्रा …जनवरी 2016 में वे धराधाम छोड़ गए ।
आकाशवाणी की वार्ताओं में , हिंदी साहित्यिक आयोजनों में , राजभाषा छत्तीसगढ़ के कार्यक्रमों में उनके साथ सहभागिता की .. उम्र का अंतराल कभी आड़े नहीं आया बल्कि अतिरिक्त स्नेह , सम्मान ही मिलता रहा ।
बिलासपुर में गुरुदेव रवीन्द्र नाथ ठाकुर की कृति ” गीतांजलि ” पर आधारित कार्यक्रम था , डॉ . पालेश्वर प्रसाद शर्मा मुख्य अतिथि थे , वयोज्येष्ठ , प्रबुद्ध वक्ता तो थे ही …। संचालक महोदय का आवाहन सुनी
” सरला शर्मा गीतांजलि की प्रासंगिकता पर अपने विचार व्यक्त करने आमंत्रित हैं । ” मैं अपनी जगह से उठती उसके पहले डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा ने माइक हाथ में लेकर कहा ” सरला शर्मा ने गीतांजलि को मूल बांग्ला में पढ़ा है निश्चय ही उनका अध्ययन अधिक समीचीन है इसलिए मैं पहले अपने विचार व्यक्त करना चाहूंगा , वक्ता के पहले मुख्य अतिथि का वक्तव्य मंचीय नियमों के अनुरूप नहीं है एतदर्थ क्षमाप्रार्थी हूं । ”
उनके कथन की अवहेलना करने का साहस मुझमें क्या किसी में भी नहीं था ..हॉल उनके समर्थन संग स्वागत में तालियों से गूंज उठा ।
मेरा मन भर गया , आँखें छलकने लगीं , आज भी सोच रही हूं मुझ जैसी स्वल्पज्ञानी , नवागंतुक , पुत्रीवत् वक्ता के लिए इतना स्नेह- सम्मान
कोई उदार हृदय , प्रबुद्ध मनीषी ही व्यक्त कर सकता है । ” ऐसो को उदार जग माहीं ..? ”
छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के प्रथम आयोजन की रूपरेखा तय करने विशिष्ट साहित्यकारों , अध्यक्ष , सचिव आदि की मीटिंग थी ।
छत्तीसगढ़ की महिला साहित्यकारों के सक्रिय योगदान की चर्चा हो रही थी । अध्यक्ष दानेश्वर शर्मा , तत्कालीन सचिव सुरेंद्र दुबे चिंता कर रहे थे कि किस महिला को संयोजन का उत्तरदायित्व दिया जाए ? काव्य पाठ , चर्चा गोष्ठी के अतिरिक्त सुदूर अंचलों से आई महिलाओं के ठहरने , रात्रिनिवास की व्यवस्था की जिम्मेदारी किसे दें ?
वरिष्ठ महिला साहित्यकारों को याद किये , कोई निर्णय नहीं हो पा रहा था …अध्यक्ष महोदय ने डॉ . पालेश्वर प्रसाद शर्मा से पूछा तो क्षण भर का भी विलंब न करके उन्होंने कहा ” सरला शर्मा को यह दायित्व दें , महिला सत्र के संयोजन के साथ ही आगंतुक महिलाओं के स्वागत सत्कार , उनके लिए आवासीय व्यवस्था की जिम्मेदारी उनकी रहेगी । ”
मैं हतप्रभ हो गई पर बड़ों के आदेश पालन का संस्कार तो साथ साथ चलता रहा है , स्वीकार की उनके आशीर्वाद , मार्गदर्शन से क्रमशः पांच साल तक महिला सत्र की संयोजक रही ।
लेखन शैली , भाषा , विषयवस्तु का प्रतिपादन , विचार सम्प्रेषण और भी कितना कुछ उनसे सीखी ,सच कहूं तो आज की सरला शर्मा को साहित्यिक अभिरुचि , अध्ययन शीलता पिता शेषनाथ शर्मा ‘ शील ‘ से मिली तो गद्य लेखन की प्रेरणा , मार्गदर्शन डॉ . पालेश्वर प्रसाद शर्मा से मिला ।
सुरता के बादर बरसने को आतुर है इसलिए दोनों प्रबुद्ध साहित्यकारों को आखर के अरघ दे रही हूं ।
इत्यलम्
सरला शर्मा
दुर्ग

निर्मल माणिक/ प्रधान संपादक मोबाइल:- / अशरफी लाल सोनी 9827167176

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